शैक्षिक संस्थाओं की सीखने में भागीदारी (शिक्षक प्रशिक्षण के संदर्भ में )

क्यूँ बेअसर हैं शिक्षक प्रशिक्षण में काम करने वाली संस्थाओं का काम

एक संस्था लाखों शिक्षकों तक पहुँचना और लाखों शिक्षकों का एक दूसरे से सीखते हुये एक दूसरे तक पहुँचना, पहले तरीके में संस्था पहुँचती हुई दिखती है, आकड़ों की बाजीगीरी होती है, शिक्षकों के सीखने को मापकर बदलाव के दावे किए जाते हैं, उपलब्धि पत्र प्रकाशित किए जाते हैं, फिर नए शोध के हवाले समस्याएँ जो वही पुरानी रहती है पर उन्हें नए तरीके से नई तकनीक का सहारा लेकर सबके सामने ऐसे अवतरित किया जाता है की सबकी आंखे ज्यादा चकाचौंध  होने से ज्यादा कुछ देख तो नहीं पाती, नयी भाषा,नए अभिव्यक्ति के साधनों की अपनी ही  ध्वनि व अर्थ  होता है जिससे मूल मैसेज तो शिक्षकों तक पहुँच ही नहीं पाता, शिक्षक इस बात को स्वीकार नहीं करते की उन्हे ना तो कुछ दिखाई दिया है और ना ही ठीक से सुन पाएँ हैं,वे अजीब असमंजस में रहते हैं क्यूंकी उपलब्धि पत्र भी उन्ही की प्रशंसा को बता रहा है और शोध भी उन्ही के मूल चरित्र को दर्शा रहा होता है-की अभी उन्हे एक साथ मिलकर सीखने की लंबी यात्रा पर चलना है जिस पर समय -समय पर नए मोड़ आते रहते हैं और उनकी मंजिल और दूर होती रहती है, सीखना एक सफर भर ही होता है, नए मोड़ आते चले जाते हैं, मंजिल इसका मुकाम नहीं होती, ये राहे ही सीखने की यात्रा का सुख़नवर देती रहती हैं। पर अचानक से जैसे ही संस्था का एक पड़ाव होता है तो जो मंजिल इन्हे थमाई जाती है वो इन सबके साथ छल है, सीखना बिना पड़ाव की यात्रा है,सब शिक्षक साथ चलते तो हैं पर वास्तव में कोई किसी के साथ नहीं होता, हर किसी की अपनी गति,अपनी राह होती है -एक -दूसरे को चलते देख चलते चले जाने का संबलन मिलता है पर आगे की यात्रा करने के लिए खुद ही चलना होता है,कोई किसी के लिए इस यात्रा को नहीं चल सकता है। यहाँ तक की चलने वालों को अपने रास्ते भी खुद ही बनाने होते हैं, इस रास्ते बनाने की प्रक्रिया में जरूर कोई अन्य सहायता या भागीदारी कर सकता है।सहायता करने वाले को रास्ते बनाने की कला में माहिर होना पड़ता है ताकि वे चलने वाले शिक्षक उन्हे अपना भागीदार बना सके।यही इन संस्थाओं की भूमिका होती है। पर जो चित्र ये संस्थाए दिखाती है- वो चित्र चलने वाले शिक्षकों की कल्पना में भी नहीं होता, संस्था को चाहिए की चलने वालों शिक्षकों को साथ लेकर ही कुछ चित्र बनाने की प्रक्रिया हो ताकि दोनों एक दूसरे  का सहयोगी बनना स्वीकार करें, मिलकर चलना तय करें, चलें, जरूरी मोड़ भी लें, पर ये सफर हर एक का अपना हो, हर एक इसको स्वीकार कर चला हो- क्यूंकी सीखने की सफर का एक भी कदम बिना सीखने वाले की स्वायत्ता के आगे नहीं बढ़ा जा सकता है।

अब दूसरे तरीके पर आते हैं जब लाखों शिक्षक एक दूसरे एक साथ चलते हुये एक दूसरे तक पहुँचते हैं, संस्थाएं यहाँ शिक्षकों को एक दूसरे एक समीप लाने का कार्य करती हैं क्यूंकी वो भी उसी रास्ते पर जा रही हैं, उनके पास छोटे-छोटे अनेक ऐसे साधन हैं जिनसे वो राहो के बड़े जंजाल को पार करने की उम्मीद रखती है और कभी- कभी कुछ कामयाबी भी उन्हे मिलती है, यहाँ वो ये नहीं चाहती की सभी एक साथ हों, एक साथ चले वरन वो जो चल रही हैं या यूं कहें चलने वाले चल रहे हैं और वो भी उस राह पर आ गई है,अब जो उन्हें रास्ते में मिलता है उनके साधन से आकर्षित होता है,उनके साथ चलना स्वीकारता है, उसकी वो जरूर कुछ समय में भागीदारी करती हैं, पर ये तो सतत सफर है इसलिए उन्हे अपने साधनों को निरंतर बदलना या मरम्मत करना होता है नहीं तो वो चलने वाले की मदद के बजाए उसे भटकाने का काम करेंगी-उसे उसकी राह से,जिस पर पथिक चलना चाह रहा था। यहाँ भी सफर जारी रहने की शर्त यही है की चलने वाले स्वायत्त होकर उनके साथ को स्वीकार करें, तभी आगे बढ़ा जा सकता है,नहीं तो टकराव स्थिरता ही लाएगा।

आज जब जानकारी की पहुँच अधिक सरल व द्रुत हो गई है, ज्ञान को अलग-अलग माध्यम का उपयोग करते हुए शिक्षकों तक पहुँचने के लिए खुला छोड़ दिया गया है फिर भी ज्ञान का अकाल बढ़ता ही जा रहा है, उन्ही साधनों का उपयोग करते रहने से कोई कहीं पहुँच भी नहीं पाएगा,ये रस्सी पर निशान डालने की कवायद नहीं है। जब कुछ नया करने का प्रयास भी होता है तो अति ज्ञानी शिक्षक फिर उन्ही साधनों को नए कलेवर में परोसने की सलाह दे देते हैं, उनकी सलाह से ही पथ प्रकाशित होता है, आखिर में जो नया बनता है उसका नाम ही नया होता है, होता वही पुराना है। ये जानने के प्रयास नहीं किए जाते की जब सब पहले से ही था तो लोगो तक पहुंचा ही नहीं और पहुंचा तो शिक्षकों ने कुछ सीखा क्यूँ नहीं?

शिक्षकों को जानने से पता चलता है की सबसे बड़ी समस्या उनके ज्ञान और उनकी वास्तविकता की है, ज्ञान की धारा की दिशा अलग है जबकि वास्तविकता में उन्हे चलना कोई और दिशा होता है, इस विरोधाभास को कैसे कम किया जाये -इस पर कोई नहीं कार्य करना चाहता। शिक्षकों के उनके स्वयं के प्रति, सीखने की प्रक्रियाओं के प्रति जब तक नजरिए बदलने पर कार्य नहीं किया जाएगा तब तक सभी साधन आर्थहीन होंगे।

संस्थाएं अगर सच में बदलाव का वाहक बनना चाहती हैं तो उन्हे शिक्षकों की स्वायत्ता को स्वीकार करते हुये उनके साथ उन्ही के उपायों में योगदान देते हुये समाधान की दिशा में लंबे समय तक कार्य करने की जरूरत है, ये कार्य उन्ही शिक्षकों ने खुद के लिए किया है तो संस्थाओं को इसमें ना गिना जाये तो भी वे इस भागीदारी के लिए तैयार रहे, बदलाव का सपना उन्ही का था, उनकी भूमिका तो साथ चलकर इस सपने को शिक्षकों को सौपने की थी और जब इसे शिक्षकों ने स्वीकार कर लिया तो अब ये उनका सपना है वे जिएंगे इसके लिए,और आगे सौपेंगे इस बदलाव के सपने को, संस्थाएं भी शिक्षकों के साथ इसी यात्रा पर होंगी अगर वो सच में बदलाव के लिए काम करना चाहती हैं।

4 thoughts on “शैक्षिक संस्थाओं की सीखने में भागीदारी (शिक्षक प्रशिक्षण के संदर्भ में )

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