अध्यापक की पहचान
“स्कूली शिक्षा के बदलते परिद्रश्य में अध्यापक – कर्म की रूपरेखा”
अध्यापक की पहचान
शिक्षक
स्व –सीखना ,मानव प्रकर्ति
अनुभवों की माला पिरोना –मानव प्रकर्ति
गलती करना ,उसकी सजा पाना –मानव प्रकर्ति
ये प्रकर्ति खुद ही मानव को सारे पाठ सिखाती है ,
फिर मानव ने भी शिक्षा के कुछ मानक तय कर डाले ,
एक समाज –एक सभ्यता : कुछ तर्क ऐसे गढ़ डाले ,
और सपनों को चोरी कर कर ,बीज नए दे डाले ,
कोई खुद तक कैसे पहुंचेगा ,ज्ञान भँवर मे मानव ने पैर फसा डाले ,
कुछ जाले हमने बुन डाले हैं ,लचीले और निरंतर से ,
और इन जालों की मरम्मत दे डाली है शिक्षक को –
शिक्षक –
खुद के जालों को समेटने ,
इन जालों को पिरोने ,
नए जालों को बुनने ,
अविराम सोच ,अनंत आशा
दायित्वों के बोझ से दबा हुआ ।
लहरे शिक्षक ,पतवार शिक्षक
जिसको हम जीवन कहतें,
उस जीवन का आधार शिक्षक ।
आचार्य जी ,गुरु जी से सफर शुरू होकर मारसाब/अध्यापक से होता हुआ सर जी तक तो आ पहुंचा है । पहले जहां सामाजिक एवं व्यक्तिगत सभी प्रश्नों के जबाब शिक्षक से अपेक्षित होते थे ,वहीं विशिष्टता के इस दौर में प्रश्न दर प्रश्न शिक्षक बदल जाते हैं। शिक्षक की भूमिका ,आयाम ,अर्थ ने चढ़ाव कम उतार ज्यादा के सफर पर चलना तय किया है। स्कूली व्यवस्था ने शिक्षक के साथ –साथ समाज को भी हाथ बांधकर कार्य करने के लिए छोड़ दिया है । स्वायत्ता ,समग्रता ,स्व-मूल्यांकन ,सततता की बाते भी इनके अर्थो से कहीं दूर जाकर अनंत छोर पर हो रही हैं । इन सब के बीच एक पहचान को कायम किए शिक्षक झुझारू होकर चले जा रहा है ।
शिक्षक की यह पहचान यात्रा काफी पुरानी एवं निरंतर जबर्दस्त बदलावो से गुजरने वाली है। गुरुकुल प्रणाली की संवाद यात्रा से शुरू होकर ओपनिवेशिक काल से पहले और बाद के चरणों में देखी जा सकती है । शिक्षक का अपने प्रति नजरिया ,उसके निर्णय लेने की क्षमता ,शिक्षा की गति एवं दिशा इन तीनों चरणों में नए सोपनों से गुजरता हुआ देखा जा सकता है । शिक्षा की समझ एवं शिक्षा के उद्देश्य भी व्यक्तिगत व सामाजिक तौर पर समयानुसार बदलते देखे जा सकते हैं ।
वर्तमान परिप्र्क्ष्य में शिक्षक की उदासीन मानसिकता स्कूल जाने वाले बच्चो की नियति हो गई है । पाठ्यक्रम पूरा करना व परीक्षाओं की तैयारियों करवाने तक में शिक्षक की भूमिका सिमट सी गई है । बच्चो की दुनिया स्कूल की इमारतों में उनकी कक्षा कक्ष में कैद कर दी गई है ।इस संकुचित नजरिय से हम शिक्षा के वास्तविक तत्वो को नहीं देख पाते हैं । शिक्षक का सारा ध्यान केवल गर्दन के ऊपरी हिस्से पर फोकस हो गया है , भावनात्मक पक्ष की गुंजाइश भी नहीं छोड़ी जा रही है । अंधकार के इस दौर में गांधी ,टैगोर और गिजुभाई आदि किरण भी उजाले के स्वपन की उम्मीद बनाए रखती हैं।इन सबके बीच हमारे पास उदाहरण हैं जिनमें शिक्षक स्कूली शिक्षा के मजबूत किले में अपनी चोटों द्वारा निशान बनाने में भी सफल हो रहे हैं ।
शिक्षक की मान्यताएं एवं पूर्वाग्रह शिक्षक के नजरिए को बना रही होती हैं , सीखने –सिखाने की प्रकीर्या पर चिंतन करना ,खोजी व जिज्ञासु होना उसके नजरिए को मूलत: वैज्ञानिक बनाती हैं। आज एनसीएफ़ 2005 के अनुसार मूल्यांकन के रूढ़िगत पद्धति /तरीको के बजाए ऐसे तरीके अपनाएं जाये जिसमे बच्चे के समग्र व्यक्तितत्व का आकलन किया जा सके ,ऐसे मेँ शिक्षक की चुनोतियाँ पहले से अधिक हो गई हैं की शिक्षक परीक्षा को समाप्त करने ,कमजोर बच्चों को न रोकने की नीति और उन्हे कक्षा के बाहर अतिरिकत सहायता देने की बात अवधारणात्मक रूप से सही अर्थो समझे व इसे व्यावहारिक रूप से लागू करने का वातावरण बना सके। शिक्षक के लिए यह अति आवशयक है की वह उपलब्ध संसाधनो का अधिकतम उपयोग करें ताकि अधिगम के लिए सहायक वातावरण का निर्माण हो सके और साथ ही स्कूल में सुरक्षा ,स्वास्थ्य और स्वछ्ता का भी उच्च स्तर बना रहे।
चैन कैसे पड़े ?
जब तक बालक घरों मेँ मार खाते हैं ,
और विधायलयों मेँ गालियां खाते हैं ,
तब तक मुझे चैन कैसे पड़े ?
जब तक बालको के लिए पाठशालाएं ,वाचनालए ,
ब्बग-बगीचे और किर्ड़ांगन न बने ,
तब तक मुझे चैन कैसे पड़े ?
जब तक बालको को प्रेम और सम्मान नहीं मिलता ,
तब तक मुझे चैन कैसे पड़े ?- गिजुभाई
संदर्भ –
समरहिल – ए . एस . नील
दिवास्वपन –गिजुभाई बधेका
स्कूल में आज तुमने क्या पूछा?- कमला वी. मुकुंदा
शिक्षा क्या है –जे. कृष्णमूर्ति
दब्बू तानशाह
एनसीएफ़ 2005